सपा और कांग्रेस के वंशवाद को चुनौती देगा बसपा का परिवारवाद


बहुजन समाज पार्टी में जिस तरह से परिवारवाद हावी हुआ है, उससे वो लोग काफी आश्चर्यचकित हैं जो सुश्री मायावती के पूर्व के उन बयानों पर विश्वास करते थे जिसमें वह कहा करती थीं कि मेरा कोई परिवार नहीं है। मेरा परिवार तो बहुजन समाज है। मायावती की बातों पर उनका वोटर इसलिए आंख मूंदकर विश्वास कर लेता था, क्योंकि मायावती अविवाहित हैं। वह कहती थीं मेरा जीवन दलित मूवमेंट के लिए है। मान्यवर कांशीराम उनके सियासी गुरु थे, जिन्होंने कभी गृहस्थ जीवन में प्रवेश नहीं करा था।


बताते हैं बहुजन समाज को जगाने बाले मान्यवर कांशीराम पहले पहल डीआरडीओ में वैज्ञानिक पद पर नियुक्त थे। 1971 में वह श्री दीनाभाना एवं श्री डी.के. खापर्डे के सम्पर्क में आये, जिन्होंने उनका जीवन बदल दिया। खापर्डे ने कांशीराम साहब को बाबासाहब द्वारा लिखित पुस्तक दी। इस पुस्तक ने कांशीराम का जीवन बदल दिया। पुस्तक को पढ़ने के बाद कांशीराम ने सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। उसी समय उन्होंने अपनी माताजी को पत्र लिखा कि वो आजीवन विवाह बंधन में नहीं बधेंगे। अपना घर परिवार नहीं बसायेंगे। उनका सारा जीवन समाज की सेवा करने में ही लगेगा। कांशीराम ने उसी समय यह प्रतिज्ञा की थी कि उनका उनके परिवार से कोई सम्बंध नहीं रहेगा। वह कोई सम्पत्ति अपने नाम नहीं बनायेंगे। उनका सारा जीवन समाज को ही समर्पित रहेगा और कांशीराम ने किया भी ऐसा ही। वह आजीवन अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग डटे रहे। अंतिम समय तक उनके पास कोई सम्पत्ति नहीं थी। यहां तक कि उनके परिनिर्वाण के बाद भी उनका शरीर उनके परिवार को नहीं सौंपा गया था।

 

ऐसे कांशीराम की शिष्य थीं सुश्री मायावती। इसीलिए तो जब मायावती किसी जनसभा या अन्य किसी मौके पर कहतीं कि उनका परिवार तो बहुजन समाज है तो उनके वोटर खुशी से झूमने लगते थे, लेकिन बीएसपी में अक्सर चह चर्चा भी छिड़ी रहती थी कि कांशीराम के बाद मायावती तो मायावती के बाद कौन ? मगर 5 नवंबर, 2014 की एक घटना ने मानो इस का उत्तर दे दिया था। इस दिन मायावती ने राज्यसभा के लिए अपने दो प्रत्याशियों का नाम घोषित किया था। राजाराम और वीर सिंह। उस समय आजमगढ़ के रहने वाले राजाराम को मायावती के राजनीतिक वारिस के तौर पर देखा गया था। माना गया कि वही आगे चलकर माया की गद्दी संभालेंगे। पोस्ट ग्रेजुएट राजाराम 2008 के बाद दूसरी बार राज्यसभा सांसद बनने से पहले पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे थे। उन्हें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और राजस्थान का पार्टी प्रभारी भी बनाया जा चुका था, लेकिन धीरे−धीरे उनका दावा धुंधलाता गया। अब हमारे सामने एक नया नाम है मायावती के भाई आनंद कुमार का। आनंद के साथ ही मायावती के भतीजे आकाश का नाम पार्टी ने आगे बढ़ा दिया है।

 

भले ही 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद 2017 के विधानसभा चुनाव और अब 2019 में लोकसभा चुनाव में भी बसपा को करारी हार का सामना करना पड़ा हो, लेकिन राजनीति के जानकार कहते हैं कि मायावती ने आम चुनाव से पूर्व 18 सितंबर को मेरठ में एक रैली की थी। इस रैली में सबकी निगाहें दो ही शख्स पर टिकी हुई थीं, एक थे मायावती के भाई आनंद कुमार और दूसरे थे मायावती के भतीजे आकाश। 18 सितंबर का दिन पहला ऐसा मौका था, जब दोनों को सार्वजनिक तौर पर मंच पर सामने लाया गया और लोगों से उनका परिचय करवाया गया था। बताया जाता है कि इससे पहले भी आनंद और आकाश को लखनऊ और दिल्ली में पार्टी बैठक में देखा गया था।

मायावती के सियासी सफर पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि 1977 में मायावती बीएस−3 के संस्थापक कांशीराम के कहने पर राजनीति में आई थीं। 1995 में वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और 15 दिसंबर, 2001 को कांशीराम ने उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया था। वहीं अंबेडकर जयंती के मौके पर बाबा साहब को श्रद्धांजलि देते हुए मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को बीएसपी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाने का ऐलान किया। यह इशारा था कि शायद मायावती ने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुन लिया है। जब इस संबंध में मायावती से पूछा गया तो उन्होंने कहा, 'मैंने अपने भाई आनंद कुमार को इस शर्त पर बीएसपी में लेने का फैसला किया है कि वह कभी एमएलसी, विधायक, मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बनेगा। इसी वजह से मैं आनंद को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना रही हूं।'